दर्द देके वे हमें खुद ही दवा देते हैं,
रूठ जाने पे हमें खुद ही मना लेते हैं।
मेरी जो नाव है पतवार उसमें है ही नहीं,
डूब जाने पे हमें खुद ही बचा लेते हैं।
होगा अन्ज़ाम-ए-मोहब्बत क्या मालूम न था,
देके आवाज हमें खुद ही बुला लेते हैं।
दिल की तन्हाईयों में तेरे ख्वाब बुनते हैं,
अपने सपनों में हमें खुद ही बुला लेते हैं।
मिलन की चाह में दिन-रात हम तड़पते हैं,
इसी उम्मीद में हर दिन को बिता लेते हैं।
तेरी यादों के सिवा पास मेरे कुछ भी नहीं,
तेरे लिए तो हम हर ग़म को पचा लेते हैं।
डा.रमा द्विवेदी
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रमाजी कोई ..कोई मोहबत अंजाम तक पहुँच पाती है और जो ना पहुँच पाये वह गीत बन कर रह जाती है
By: दीपा on जून 5, 2009
at 11:03 अपराह्न
तेरे लिए हम हर गम को पचा लेते हैं ,क्या खूब कही ,सुन्दर और यथार्थ के करीब है यह रचना ,बधाई
By: karuna pande on जून 5, 2009
at 11:06 अपराह्न
मेरी जो नाव है पतवार उसमें है ही नहीं,
डूब जाने पे हमें खुद ही बचा लेते हैं।
wah ise bolte hain complete dedication..aapko pata hai ki patwaar bhi nhain hai.. bahut khoob
By: Pankaj Upadhyay on जून 6, 2009
at 2:00 पूर्वाह्न
अपने मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।
By: परमजीत बाली on जून 6, 2009
at 2:01 पूर्वाह्न
अनमोल भावो की अभिव्यक्ति के लिये हार्दिक बधाई.
By: M Verma on जून 6, 2009
at 6:19 पूर्वाह्न
Submitted on 2009/06/06 at 7:18am
दिल की तन्हाईयों में तेरे ख्वाब बुनते हैं,
अपने सपनों में हमें खुद ही बुला लेते हैं।
वाह रमा जी। मनोभावों की अच्छी अभिव्यक्ति।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
By: ramadwivedi on जून 6, 2009
at 7:23 पूर्वाह्न
डा.रमा द्विवेदी जी।
भावभरी सुन्दर रचना है।
टिप्पणी करने का मन होता है परन्तु
टिप्पणी करने में पूरी जन्मपत्री लिखना कष्टदायी लगता है।
By: डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक on जून 6, 2009
at 7:36 पूर्वाह्न
दीपा जी, करुणा जी,पंकज जी,परमजीत जी,वर्मा जी,श्यामल सुमन जी,एवं डा. रूपचन्द्र शास्त्री जी,
आप सबकी अमूल्य प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभारी हूँ। आप सबका अनुभूति कलश में हार्दिक स्वागत है।
डा.शास्त्री जी, आप कुछ और भी कहना चाहते हैं…तो कहिए ना आपके उद्गारों का स्वागत है…मुझे भी कुछ सीखने को मिलेगा ही क्यों कि मैं जानती हूँ कि मेरी रचनाओं में खामियां अवश्य होंगी इसलिये आप मुझे सिखाइये कि मुझे अपनी रचनाओं को कैसे तराशना चाहिए….मैं सीखने में विश्वास करती हूँ यदि सही जानकार मिले तब। आपका पुन:हार्दिक स्वागत है….सादर…
डा.रमा द्विवेदी
By: ramadwivedi on जून 6, 2009
at 8:18 पूर्वाह्न
आदरणीय डॉ रमाजी,
आप द्वारा रचित एक और उत्कृष्ट कविता पड़ने को मिली और अहसास हुआ की कुछ अनमोल भावों का महत्त्व कितना लम्बा होता है.आपने बड़े ही सहेज ढंग से एक सच्चे प्यार करने वाले हृदय का वर्णन करा है .में आपके काव्य में एक सुकून का अनुभव करता हूँ जो आज के कविओं में दुर्लभ सा हो गया है .यदि आपकी कविताओं का बहाव बने रखा जाये तो हम दुर्लभ हो रहे मूल्यों को पुनेह जागृत कर सकते हैं ऐसा मेरा विश्वास है .मुझे प्रसंता है की आपकी कलम सतत लेखन कर थके हुएं समाज को रहत दे रही है .कृपया इस मोर्चे पर बने रहिएगा ताकि मूल्य लुप्त होने से बचे रहे .मेरी हिंदी में अभिवक्ति कमजोर है इस लिए यहीं समाप्त करता हूँ.
डॉ विश्वास सक्सेना
By: Dr Vishwas Saxena on जून 9, 2009
at 4:30 अपराह्न
हमने मान्गी थी, मोहब्बत के एक किरदार की,
आप भी, क्या खूब, दुआओं का सिला देते हैं ॥
गीत बहुत सुन्दर है । ऐसे ही लिखते रहिये ।
डा०डी०बी०
By: Dr.D.B.Bajpai on जून 10, 2009
at 10:31 अपराह्न
डा. विश्वास जी एवं डा. डी. बी. जी,
रचना को पसन्द करने के लिए दिल से आभारी हूँ….आप सबका स्नेह है जो सृजन करने की नई ऊर्जा प्रदान करता है….सादर..
डा.रमा द्विवेदी
By: ramadwivedi on जून 10, 2009
at 10:43 अपराह्न